अरविन्द मोहन
भाजपा द्वारा इस तथ्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकार न करना है कि गठबंधन भारतीय राजनीति का बहुत बड़ा सच है, जरूरत है और आज कोई भी नेता या दल पूरे मुल्क की राजनीति करने में सक्षम नहीं है। यह बात उस नेता और उसकी राजनीति की आलोचना से ज्यादा भारतीय समाज की सच्चाई को बताता है, भारतीय लोकतंत्र के जवान होने की पुष्टि करता है।
अभी 'इंडिया' के गठन को भी पक्का और फाइनल नहीं मानना चाहिए। लेकिन नीतीश कुमार ने जब दोबारा भाजपा का साथ छोड़ते हुए अपने लिए विपक्ष को एक करने की भूमिका तय की तब से बात काफी आगे बढ़ चुकी है। और इस सफलता के लिए नीतीश कुमार को बधाई बनती है। सिर्फ उन्हें ही नहीं लगभग सारे विपक्ष वालों को बधाई बनती है कि उन्होंने मतभेद के अनगिनत प्रसंगों को दरकिनार करके इस पहल को आगे बढ़ाया है और अरविन्द केजरीवाल द्वारा पहले दौर में उठाए गए हंगामे को भी संभाल लिया है। दूसरे दौर में अन्य बड़े हंगामे तो नहीं दिखे लेकिन कुछ खटर-पटर हुई। तय मानिए ऐसा अंत तक चलेगा क्योंकि राज्यों की राजनीति में आमने -सामने के दल भी इस खूबसूरत नाम वाले गठबंधन का हिस्सा बन गए हैं। जब चुनाव होगा तो लड़ना तो होगा ही। फिर मुद्दे और एजेंडा तय करना है, केन्द्रीय नेता न सही राज्यों के नेता या प्रमुख दल की स्वीकार्यता मुद्दा है, संसाधन जुटाने और बांटने का सवाल होगा। समन्वय का मुश्किल काम है। अब सुरजीत और जार्ज फर्नांडीस नहीं हैं लेकिन उनकी भूमिका तो बची है और जो भी निभाएगा उसे दंडवत-प्राणायाम करना ही होगा। फिर सामने बैठा ताकतवर शासक जमात भी चुप क्यों बैठेगा। उसने भी तोड़-फोड़ शुरू कर दी है और आगे और सक्रिय होगा ही।
जिस तरह से नरेंद्र मोदी और भाजपा ने इस 'इंडिया' गठबंधन को लेकर प्रतिक्रिया दी है वह ठीक उसी उम्मीद वाली नहीं है जो मोदी-शाह की ताकतवर जोड़ी या सत्ता और संसाधन से लैस भाजपा या फिर विशाल संघ परिवार के कार्यकर्ताओं की फौज के हर हाल के समर्थन के लिए आश्वस्त दल से की जा रही थी। किसी पासवान, किसी सहनी, किसी मांझी, किसी राजभर जैसों को फिर से जोड़कर अपना एनडीए खड़ा करना और उसमें अकाली दल और अजीत सिंह की पार्टी को ही नहीं केसीआर की पार्टी और जगन मोहन रेड्डी को लाने की कोशिश करना तो बहुत स्वाभाविक कदम हैं और अगर मोदी तथा शाह जुटेंगे तो उनके गठबंधन में 38 क्या बावन दल होने में देर नहीं लगेगी। और अगर गठबंधन का नेतृत्व भाजपा करेगी, नरेंद्र मोदी नेता होंगे तो न कार्यक्रम/एजेंडे को लेकर कोई गिला-शिकवा होगा न संसाधनों को लेकर। पर मोदी जी ही नहीं पूरी भाजपा मंडली, खासकर आज पार्टी को निर्णायक दिशा देने में प्रभावी लोगों और प्रवक्ताओं की जो प्रतिक्रिया दिखती है उसे लेकर बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं है। उसमें कहीं न कहीं डर है, खीझ है, कुंठा है। कुल मिलाकर वह भाजपा और खुद मोदी जी के पक्ष को हल्का बनाती है। अब 'इंडिया' को लेकर इतने तरह की बात करने की जरूरत नहीं थी।
लेकिन उससे ज्यादा गंभीर बात भाजपा द्वारा इस तथ्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकार न करना है कि गठबंधन भारतीय राजनीति का बहुत बड़ा सच है, जरूरत है और आज कोई भी नेता या दल पूरे मुल्क की राजनीति करने में सक्षम नहीं है। यह बात उस नेता और उसकी राजनीति की आलोचना से ज्यादा भारतीय समाज की सच्चाई को बताता है, भारतीय लोकतंत्र के जवान होने की पुष्टि करता है, कमजोर से कमजोर सामाजिक समूह और क्षेत्रीय आबादी द्वारा अपना नेता सामने करने, अपनी आकांक्षाओं को सामने रखने और वोट की राजनीति द्वारा उनको आगे बढ़ाने की पुष्टि करता है। शुरुआती कांग्रेसी राजनीति में प्रो. रजनी कोठारी जिस 'रेनबो कॉलिशन' को देखते थे और जिसकी वास्तविकता और कमजोरियों को भी गिनाते थे वह बाद की राजनीति में गठबंधनों द्वारा ही हासिल किया जाता रहा है। ऐसा 67 के गैर कांग्रेसवाद के समय भी हुआ और 77 के जनता पार्टी प्रयोग के समय भी। बाद में भी यह काम एनडीए और यूपीए ही नहीं वाम मोर्चा या रामो-वामो जैसे नामों से होता रहा है। यह अलग बात है कि कांग्रेस और बड़ी पार्टियों को ही नहीं विचारधाराओं और एक नेता से ज्यादा मजबूती से जुड़ी पार्टियों को खुले रूप में इसे स्वीकार करने में मुश्किल होती रही है। कांग्रेस अपने चंडीगढ़ अधिवेशन तक अकेले चलाने का प्रस्ताव करती रही तो वाम दल बिना अपना दबदबा मनवाए गठबंधन करने से परहेज की रणनीति अपनाए रहे।
राष्ट्रीय स्तर पर खुला गठबंधन अटलबिहारी वाजपेयी के दौर में बना और उसे बनाने के लिए धारा 370 की समाप्ति, राममंदिर और तीन तलाक जैसे मुद्दों को भी भाजपा ने ताक पर रख दिया। फिर कांग्रेस का नखरा भी गया और वाम दल भी माने। व्यावहारिक राजनीति में सिद्धांतों-विचारों का जोर काम होने का भी फर्क पड़ा। इसकी कीमत नेता का कद अव्यावहारिक रूप से बढ़ना और उसे हथियाने के लिए सारे कुकर्म के रूप में सामने आया। देश भर में जोर नहीं चला तो अपने प्रदेश या इलाके भर में ऐसा हुआ। और ऐसा दौर आया जब अधिकांश प्रदेशों से कथित राष्ट्रीय पार्टियों की तो विदाई हुई ही केंद्र सरकार में भी क्षेत्रीय दलों के नेता निर्णायक भूमिका में आ गए। ममता, जयललिता और मायावती ने अटल जी को 'पानी पिला दियाÓ तो लालू, बादल, चौटाला, पंवार, चंद्रबाबू, करुणानिधि और मुलायम केंद्र सरकारों के भी 'भाग्यविधाता' बने। और अटल जी या नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकार बाकी किसी से खराब चली हो यह भी नहीं कहा जा सकता। लालू जी पर्याप्त काबिल रेल मंत्री साबित हुए।
यह दौर लोक सभा और संसद की बनावट पर भी रंग छोड़ने वाला हुआ। एक समय ऐसा आया कि कथित राष्ट्रीय पार्टियों(या चुनाव आयोग से मान्यता प्राप्त) के सांसदों की संख्या पीछे रहने लगी और क्षेत्रीय दलों के सांसद ज्यादा होने लगे। नरेंद्र मोदी के उदय के साथ यह क्रम कुछ बदलता दिखा-क्षेत्रीय दलों का वोट प्रतिशत तो 2014 में बढ़ा लेकिन सीटों में गिरावट आई। 2019 में दोनों में कमी हुई तो कई राजनैतिक पंडित कहने लगे कि क्षेत्रीय राजनीति या पारिवारिक पार्टियों या जाति आधारित पार्टियों की राजनीति के गिरने की शुरुआत हो चुकी है। मोदी जी का व्यक्तित्व और भाजपा-संघ का एजेंडा नेतृत्व और वैचारिक बिखराव को पलटने के तर्क भी तैयार करने लगा। दूसरी ओर रामविलास की पार्टी को मटियामेट करने, मुकेश सहनी की पार्टी को समाप्त करने, जीतनराम मांझी की पार्टी को दुरदुराने, ठाकरे की पार्टी को तोड़ने, चौटाला पार्टी को बिखराने, पवार पार्टी को विभाजित करने जैसे काम हुए या खुद से हो गए। पर विपक्षी एकता का मजाक उड़ना भी जारी रहा। 'इंडिया' का स्वरूप उभरते ही (जिसमें अभी भी कई मजबूत गैर-भाजपा दल नहीं आए हैं) भाजपा और मोदी-शाह के इस अभिमान का अंत भी दिखता है। इसकी प्रतिक्रिया में एनडीए को पुनर्जीवित करना तो स्वाभाविक कदम लगता है पर खुद भी गठबंधन सरकार चलाते हुए(जी हां, अभी की मोदी सरकार भी गठबंधन वाली ही है) गठबंधन की राजनीति को कोसना असल में अपनी बेचैनी और कुंठा को दिखाता है। अपने सर्वमान्य और सर्वकालीन महान नेता बनाने के सपने के टूटने की बौखलाहट दिखती है।